हिंदी साहित्य और सिनेमा का अंतर्संबंध
हिंदी सिनेमा ने सदैव समाज को नई दिशा प्रदान की है। भारत में ऐसी कितनी ही फिल्में हैं जो हिंदी साहित्य पर बनाई गई हैं और दर्शकों ने उन्हें काफ़ी सराहा भी है। हिंदी सिनेमा का गरिमापूर्ण आरंभ तब हुआ जब प्रेमचंद की एक नामचीन कृति के आधार पर सत्यजीत रे ने सन् 1977 में अपनी पहली हिंदी फ़िल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का सफलतापूर्वक निर्माण करके अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखवा डाला। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ से प्रेरित होकर भारत के महान निर्माता केदार शर्मा ने सन् 1941 में इसी शीर्षक से एक सदाबहार फ़िल्म की रचना की और फ़िल्म उद्योग में अपना नाम अमर कर लिया। इस फ़िल्म को भी जनता ने काफ़ी सराहा।
हिंदी सिनेमा
भीष्म साहनी के बँटवारे पर लिखे गए कालजयी उपन्यास ‘तमस’ पर इसी नाम से गोविंद निहलानी ने चार घंटे से ज़्यादा की फ़िल्म बनाई थी जो उपन्यास की तरह ही दर्शकों को अंदर तक झंझोड़ने में सफल रही। बी. आर. चोपड़ा द्वारा निर्देशित और कमलेश्वर द्वारा लिखित यह फ़िल्म ‘पति, पत्नी और वो’ इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है जो हिंदी सिनेमा में सफलतापूर्वक एक अमिट स्थान स्थापित कर चुकी है। श्याम बेनेगल ने धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ को पर्दे पर जीवंत बनाया। उन्होंने इसी नाम से 1992 में फ़िल्म बनाई थी जो उपन्यास की तरह ही लोकप्रिय रही। सन् 1981 में मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘सद्गति’ पर सत्यजीत रे ने फ़िल्म बनाई थी। यह फ़िल्म भारतीय जाति व्यवस्था पर गहरा प्रहार करती है। साथ ही इसमें अस्पृश्यता की बुराई का चित्रण भी बहुत ही उम्दा तरीके से किया गया है। ऐसी कितनी ही फ़िल्में हैं जिसका आधार हिंदी साहित्य रहा और सिनेमा में अपना नाम सुनहरे पृष्ठों पर अंकित करवाया। पारसी रंग-ढंग में ढल चुके सिनेमा के शुरूआती दौर का रंग दर्शकों पर इस कदर चढ़ गया कि वे सिनेमा की चकाचैंध में अपनी सुध-बुध खो बैठे। इसी से आकर्षित होकर जैसे-जैसे फ़िल्मों का प्रचार बढ़ा लोगों का विश्वास फ़िल्मों में बढ़ता गया। वे इतने डूब चुके थे कि भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उन्हें अत्यधिक सुख का सपना दिखाने वाली फ़िल्मों का सहारा लेना पड़ा था। शोक को और दुख को दर्शाने वाली फ़िल्मों को अपना कंधा बनाना पड़ा। फ़िल्म-निर्माताओं को अपनी फ़िल्म का सफल निर्देशन करने के लिए वास्तविक स्रोत, मूल भाव वाली पटकथा को गुण कीर्तन के साथ दर्शाना पड़ता है।
शरद जोशी द्वारा रचित कहानी ‘तुम कब जाओगे, अतिथि?’ के वास्तविक रूप का कत्ल करके ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ नाम से फ़िल्म निर्मित की गई जो वास्तविक कथा से एकदम परे थी। इस फ़िल्म में प्रत्येक घटना को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया जिसके कारण फ़िल्म काफ़ी भीड़ जमा करने में कामयाब रही।
ऐसी कितनी ही तथ्य आधारित फ़िल्में बनीं जिनका आधार बना हिंदी साहित्य और ऐतिहासिक घटनाएँ। उनमें से सबसे बड़े दो महायुद्ध ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की गाथाएँ आज तक अलग-अलग तरीकों से फ़िल्माई जाती हैं। ऐसे धार्मिक ग्रंथ भी हिंदी साहित्य की ही देन हैं। रानी लक्ष्मीबाई, ताँतिया टोपे, बेगम हज़रत महल, भगत सिंह और न जाने कितने ही महान आत्माओं की जीवनियों ने हिंदी साहित्य की नाक ऊँची रखी है। इनकी जीवनियों को अपने मुताबिक मोड़कर उपयोग करने वाले निर्माता इन्हें अपने ढंग और अपने अनुसार दर्शाते हैं। जैसे अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध संदेश देती सफल फ़िल्म ‘लगान’ जिसमें यह दर्शाया गया है कि अंग्रेजों से स्वतंत्रता पाने के लिए केवल एक गेंद-बल्ले (क्रिकेट) का मैच ही काफ़ी था। हाल ही में आई बाजीराव मस्तानी और आने वाली फ़िल्म पद्मावती, असल तथ्यों से परे है। यहाँ तक कि महाभारत और रामायण पर दर्शाई गई फ़िल्में भी असल हकीकत से बहुत दूर होती हैं।
इन कारणों से कोने-कोने में मौजूद दर्शकों तक अनुचित ज्ञान पहुँच रहा है। जो व्यक्ति मानसिक रूप से कमज़ोर है और फ़िल्मों के जरिए सीखता है या वे जिनके पास सिनेमा के अलावा ज्ञान बटोरने का और कोई जरिया नहीं, वे लोग शायद जाने-अनजाने में उचित जानकारी नहीं ले पा रहे हैं। ऐसा ही कुछ प्रेमचंद की फ़िल्मों के साथ भी हुआ। प्रेमचंद की कहानियों पर 1934 में ‘नवजीवन’ बनी। के. सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवासदन’ उपन्यास पर इसी नाम से फ़िल्म बनाई। ए.आर. कारदार ने 1941 में ‘त्रिया चरित्र’ पर ‘स्वामी’ नामक फिल्म बनाई। सन् 1946 में ‘रंगभूमि’ नामक कहानी पर इसी नाम से फ़िल्म बनी। मृणाल सेन ने सन् 1977 में ‘कफ़न’ कहानी पर बांग्ला भाषा में एक फ़िल्म ‘ओका ऊरी कथा’ का निर्माण किया। साल 1963 में ‘गोदान’ तथा 1966 में ‘गबन’ का भी निर्माण हुआ।
दुर्भाग्य यह है कि इनमें से एक भी फ़िल्म नाम कमाने में असफल रही। इतने मशहूर लेखक के उपन्यास और कहानियों में सदा ही पाठकों को झकझोरा है फिर इतने प्रभावशाली लेखक की कृतियों पर आधारित फ़िल्मों का अंत इतना बुरा क्यों हुआ?
ऐसा ही एक उदाहरण है शैलेंद्र द्वारा रचित ‘तीसरी कसम’, जिसकी पटकथा की जड़ बनी फणीश्वरनाथ रेणु की महान कृति ‘मारे गए गुल्फ़ाम’ जिसने उन्हें मजबूर कर दिया कि वे इस फ़िल्म को निर्मित करें। राष्ट्रीय स्वर्णपदक से सम्मानित यह फ़िल्म ज्यों-की-त्यों उतारी गई। इस फ़िल्म में दुख को और बढ़ाकर दिखाने की जगह इसमें दुख और गलती से सीख लेने की प्रेरणा मिलती है जो दर्शकों के साथ सामाजिक परिस्थितियों की अनुकूलता के मूल्य पर सच्चा न्याय करती है। फिर भी यह फ़िल्म दर्शकों का दिल जीतने में, उनका मन लुभाने में सक्षम न हो सकी। ऐसा ही कुछ हाल भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘हरिश्चंद’ पर आधारित दादा साहब फाल्के द्वारा निर्मित ‘हरिश्चंद्र’ फ़िल्म के साथ हुआ। इस फ़िल्म की असफलता के चलते निर्माताओं का हिंदी साहित्य पर आधारित फ़िल्में बनाने पर से विश्वास उठ गया और उन्होंने अपने हाथ खड़े कर दिए।
हिंदी साहित्य के लिए यह एक शोकजनक बात है कि सिनेमा में इसका योगदान थोड़ा कम सफल रहा। इसके मुख्य कारणों में से एक है कि दर्शक फ़िल्मी दुनिया में इतने खो गए कि वे अपने वास्तविक जीवन से मुलाकात करने में नाकामयाब रहे जिसका असर ‘तीसरी कसम’ जैसी फ़िल्म पर दिखा। ऐसी फ़िल्में जैसे बजरंगी भाईजान, ट्यूबलाइट, कभी खुशी कभी गम जो हर रूदन भरे स्वर को अधिक रूदनता के साथ पेश करती है।
एक कारण यह भी है कि अंग्रेजी साहित्य को हिंदी साहित्य के मुकाबले अधिक दिलचस्प माना जाता है किंतु ऐसा बिलकुल नहीं। हालाँकि चेतन भगत की कहानियाँ जैसे ‘फाइव पाॅइंट समवन’ पर आधारित ‘थ्री इडियट्स’, ‘थ्री मिस्टेक्स आॅफ माय लाइफ़’ पर बनी ‘काए पो चे’, ‘टू स्टेट्स’ पर फ़िल्मित ‘टू स्टेट्स’ और अन्य कृतियाँ बहुत नाम कमा चुकी हैं, वहाँ ऐसी कई कृतियाँ हैं जो भीड़ को आकर्षित करने में कामयाब न हो पाईं। जैसे - रस्किन बाॅन्ड के उपन्यास ‘सुजैन्स ऐवेन हस्बैंड्स’ पर आधारित फ़िल्म ‘सात खून माफ़’, चेतन भगत की पुस्तक ‘हाफ़ गर्लफ्रेंड’ पर आधारित इसी नाम से बनी फ़िल्म जो समर्थकों को जुटाने में नाकाम रहीं। अंग्रेजी साहित्य से निर्मित फ़िल्में न केवल असली पटकथा से अलग थीं बल्कि हर दृश्य को अतिशयोक्ति के साथ प्रस्तुत किया जाता है। प्रत्येक बार पुनर्निर्मित फ़िल्म की विचार धारणा इतनी अलग हो जाती है कि पुस्तक या उपन्यास (आधार) का कोई ठोस मोल नहीं रहता।
साहित्य केवल लिखित नहीं होता बल्कि अलिखित भी होता है जिसका वाचन किया जाता है। भारत में हिंदी सिनेमा में केवल लिखित हिंदी साहित्य ने अहम भूमिका नहीं निभाई है, कुछ श्रेय अलिखित साहित्य ने भी निभाई है। समाज में बदलाव का कारण बना है हिंदी सिनेमा। यह कहना गलत नहीं होगा कि हिंदी साहित्य और सिनेमा एक-दूसरे के पूरक हैं क्योंकि सिनेमा की शुरूआत भारत में हिंदी साहित्य से ही हुई थी। भारत में बनने वाली पहली सवाक फ़िल्म ‘आलम आरा’ से पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘हरिश्चंद्र’ और वर्तमान काल तक प्रगति संभव हो पाई है जो केवल हिंदी साहित्य के कारण। साहित्य और सिनेमा अतः जुड़े हुए हैं।
ये तो चंद ही उदाहरण थे परंतु सत्य तो यह है कि हिंदी साहित्य ऐसी अनगिनत महाकृतियों का भंडार है और सिनेमा जाने कितनी ही हिंदी कृतियों का। हिंदी सिनेमा में हिंदी साहित्य के गद्य और काव्य दोनों ने ही एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरण स्वरूप यदि हम देखें तो ‘अग्निपथ’ नामक फ़िल्म में बोले गए संवाद में से मूल संवाद ‘अग्निपथ’ कविता के हैं।
अंततः, उचित यह कहना होगा कि योगदान चाहे प्रकाशित साहित्य ने दिया या अप्रकाशित, गद्य ने दिया या पद्य, प्रत्येक कृति ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
सिनेमा हिंदी साहित्य से कभी भी अनभिज्ञ नहीं रह पाया है। हिंदी सिनेमा केवल मनोरंजन का पात्र नहीं बना किंतु उसने ऐसी कई भावनाओं को जन्म दिया जिसने एक नए भारत का भविष्य निर्धारित किया। हिंदी साहित्य के धरातल पर उतरी फ़िल्म न केवल एक फ़िल्म मात्र होती है अपितु वह एक वासना रहित सरल हृदय की कहानी होती है।
—रमेश चंद्र
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